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कभी ‘मिनी जमशेदपुर’ कहा जाता था डालमियानगर, आज वीरान खंडहरों में सिमट गई बिहार की औद्योगिक शान
1930 से 1970 के बीच डालमियानगर बिहार की औद्योगिक पहचान था — जहाँ सीमेंट से लेकर साबुन तक बनता था। आज वही शहर सिर्फ यादों और चुनावी वादों में जिंदा है।
बिहार के रोहतास जिले में सोन नदी के किनारे बसा डालमियानगर, कभी औद्योगिक क्रांति का प्रतीक माना जाता था। यह वही जगह थी जहाँ ऊँची चिमनियों से उठता धुआं राज्य के विकास की पहचान था। 1930 से लेकर 1970 के दशक तक यह इलाका बिहार का ‘मिनी जमशेदपुर’ कहलाता था। यहाँ सीमेंट, चीनी, पेपर, एस्बेस्टस, वानस्पति तेल और साबुन तक बनने वाले कारखाने थे।
करीब 10,000 से अधिक मजदूरों के रोजगार का केंद्र था डालमियानगर। आसपास के कस्बों से लोग यहाँ काम करने आते थे। स्कूल, हॉस्पिटल, क्लब, मार्केट और क्वार्टरों से सजा यह इलाका किसी आधुनिक टाउनशिप से कम नहीं था। उस दौर में डालमियानगर का नाम टाटा के जमशेदपुर के साथ लिया जाता था।
लेकिन समय के साथ यह औद्योगिक नगर धीरे-धीरे टूटने लगा। 1980 के बाद यहाँ की फैक्ट्रियां बंद होने लगीं। मजदूरों को महीनों वेतन नहीं मिला, बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं भी खत्म हो गईं। 1990 के दशक तक लगभग सभी यूनिट्स ठप हो गईं और हजारों परिवार बेरोजगारी की मार झेलने लगे।

आज जब कोई डालमियानगर जाता है, तो वहाँ सिर्फ जंग खाई मशीनें, टूटी इमारतें और वीरान क्वार्टर दिखते हैं। कभी जहाँ शिफ्ट की घंटियां बजती थीं, अब वहाँ सन्नाटा पसरा है। पुराने लोग बताते हैं कि “यहाँ की रातें कभी नहीं सोती थीं — फैक्ट्री की रोशनी और मजदूरों की आवाजें इसे जिंदा रखती थीं।”
डालमिया ग्रुप ने 1930 के दशक में यहाँ अपना औद्योगिक साम्राज्य खड़ा किया था। उस समय की सोच थी — एक ही जगह पर कई उद्योग विकसित कर लोगों को रोजगार देना। लेकिन प्रबंधन की लापरवाही, बढ़ते राजनीतिक हस्तक्षेप और आर्थिक अस्थिरता ने सब कुछ बदल दिया।
बंद फैक्ट्रियों के बाद शहर की पहचान भी मिटती चली गई। अब डालमियानगर सिर्फ चुनावी भाषणों में दिखाई देता है, जब कोई नेता यहाँ रोजगार पुनर्जीवित करने का वादा करता है। पिछले विधानसभा चुनाव में भी डालमियानगर को फिर से ‘इंडस्ट्रियल हब’ बनाने की घोषणा की गई थी, लेकिन हकीकत आज भी वैसी ही है — टूटी दीवारें और सूनी सड़कें।
बिहार के औद्योगिक नक्शे से डालमियानगर का गायब होना एक बड़ी सीख है कि योजनाएं सिर्फ कारखाने लगाने से नहीं, बल्कि उन्हें चलाए रखने की नीतियों से सफल होती हैं। यहाँ के बुजुर्ग अब भी उम्मीद रखते हैं कि कभी न कभी डालमियानगर की चिमनियां फिर धुआं उगलेंगी — और उनके बच्चों को वही रौनक देखने को मिलेगी जो उन्होंने देखी थी।
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