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Politics

ब्राह्मण बनाम यादव की सियासी बिसात यूपी में किसे मिल रहा है संघर्ष का फायदा

इटावा के कथावाचक विवाद से फिर गरमाई यूपी की राजनीति क्या ब्राह्मण बनाम यादव ध्रुवीकरण से बदल जाएगा 2025 का चुनावी गणित

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इटावा विवाद के बाद यूपी की सियासत में फिर उठी ब्राह्मण-यादव ध्रुवीकरण की लहर
इटावा विवाद के बाद यूपी की सियासत में फिर उठी ब्राह्मण-यादव ध्रुवीकरण की लहर

उत्तर प्रदेश की सियासत एक बार फिर जातीय ध्रुवीकरण की तरफ बढ़ती दिखाई दे रही है। इटावा में एक कथावाचक की कथित पिटाई की घटना ने न सिर्फ स्थानीय स्तर पर उबाल पैदा किया है, बल्कि प्रदेश भर में इस मुद्दे को लेकर ब्राह्मण बनाम यादव की बहस को फिर हवा मिलने लगी है। सवाल यह है कि इस टकराव की आड़ में आखिर किसे राजनीतिक लाभ मिल रहा है?

इटावा विवाद ने खोली नई सियासी खिड़कियां
जिस कथावाचक की पिटाई का मामला सामने आया, वह ब्राह्मण समुदाय से हैं, जबकि जिन पर आरोप लगे हैं वे कथित तौर पर यादव समुदाय से जुड़े हैं। यह महज एक स्थानीय झगड़ा होता, यदि इसे इस तरह से तूल न दिया जाता। लेकिन जैसे ही इस घटना को जातीय चश्मे से देखा गया, राजनीतिक दलों की बयानबाजी तेज हो गई। भाजपा के कुछ नेताओं ने इसे ब्राह्मण समाज की “उपेक्षा” बताया, वहीं समाजवादी पार्टी ने इसे “प्रचार का हिस्सा” कहा।

ब्राह्मणों की नाराजगी – लेकिन लाभ किसे?
प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा सरकार पर लंबे समय से यह आरोप लगता रहा है कि ब्राह्मण समुदाय की अनदेखी हो रही है। हालांकि भाजपा नेतृत्व ने समय-समय पर ब्राह्मण चेहरों को सामने लाकर इन आरोपों का जवाब देने की कोशिश की है। वहीं दूसरी ओर, समाजवादी पार्टी ने कई बार ब्राह्मण सम्मेलनों का आयोजन कर समर्थन हासिल करने की कोशिश की, लेकिन कोई स्थायी लहर नहीं बन सकी।

राजनीति का नया संतुलन’ चाहती हैं पार्टियां
इटावा जैसी घटनाएं अब किसी एक जाति तक सीमित नहीं रहतीं। इनसे जुड़ी खबरें तेजी से सोशल मीडिया और न्यूज चैनलों पर वायरल होती हैं, जिससे वोटबैंक की सियासत तेज हो जाती है। “रामचरितमानस” पर पहले भी उठे विवादों को भुनाने की कोशिशें देखी गई हैं, अब कथावाचक पर हमला उस प्रयास की अगली कड़ी माना जा रहा है। ब्राह्मणों में उपेक्षा की भावना और यादवों के वर्चस्व की छवि – दोनों को भुनाने की कोशिश में राजनीतिक दल लगे हुए हैं।

2025 चुनाव की भूमिका तैयार?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर ऐसी घटनाओं का सिलसिला यूं ही जारी रहा तो आने वाले विधानसभा चुनाव में इसका सीधा असर पड़ सकता है। जातीय टकराव और भावनात्मक मुद्दे चुनावी समीकरण बदल सकते हैं, और यही वजह है कि सभी दल अब “न्याय” और “सम्मान” की भाषा बोलने लगे हैं।

जनता को चाहिए जवाब, न कि जहर
जहां एक ओर सियासी दल अपने-अपने नरेटिव गढ़ने में जुटे हैं, वहीं जनता अब इन मुद्दों को लेकर अधिक सजग है। सोशल मीडिया पर युवाओं की प्रतिक्रियाएं यह बताने लगी हैं कि अब सिर्फ जाति नहीं, बल्कि शासन, सुरक्षा और विकास भी मुख्य मुद्दा बनते जा रहे हैं। लेकिन क्या राजनीतिक दल यह समझेंगे?

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