Rashtriya
बिहार में वोटर लिस्ट संशोधन पर नहीं लगेगा ब्रेक सुप्रीम कोर्ट ने EC को दी हरी झंडी पर समय पर उठाए सवाल
विशेष गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी संवैधानिक संस्थाओं के काम में बाधा नहीं पर पारदर्शिता ज़रूरी

बिहार में आगामी चुनावों से पहले मतदाता सूची को लेकर उठे विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया है। अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि राज्य में वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision) जारी रहेगा और वह किसी संवैधानिक संस्था के कार्य में हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने याचिकाकर्ताओं की आपत्ति पर सुनवाई करते हुए चुनाव आयोग से कुछ तीखे सवाल तो जरूर किए, लेकिन वोटर लिस्ट संशोधन पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि आयोग को यह ध्यान रखना होगा कि मतदाता सूची की प्रक्रिया न्यायसंगत और पारदर्शी हो।
वकील गोपाल शंकरनारायणन, जो याचिकाकर्ताओं की ओर से पैरवी कर रहे थे, उन्होंने कहा कि आयोग ने स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन” नाम से एक नई प्रक्रिया अपनाई है, जो मौजूदा क़ानून के तहत स्पष्ट नहीं है। उनका यह भी तर्क था कि 2003 में भी इस तरह की प्रक्रिया हुई थी लेकिन उस समय मतदाताओं की संख्या बेहद कम थी। आज बिहार में 7 करोड़ से अधिक मतदाता हैं, ऐसे में इतनी जल्दी पूरी लिस्ट को संशोधित करना व्यवहारिक नहीं है।
भारत का चुनाव आयोग, जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की रीढ़ माना जाता है, पहले ही इस बात पर जोर दे चुका है कि मतदाता सूची का समय-समय पर पुनरीक्षण करना उसकी संवैधानिक ज़िम्मेदारी है। आयोग का दावा है कि इस प्रक्रिया से मतदाता सूची को अधिक सटीक और अद्यतन बनाया जा रहा है।
हालांकि न्यायालय की पीठ ने इस प्रक्रिया की टाइमिंग पर प्रश्न जरूर उठाए। चुनावों से ठीक पहले इस प्रकार की गहन प्रक्रिया को लागू करना मतदाताओं में भ्रम की स्थिति पैदा कर सकता है—यह अदालत की स्पष्ट चेतावनी थी।
इस मामले का राजनीतिक असर भी गहराता दिख रहा है। विपक्षी दलों ने पहले ही इस प्रक्रिया पर “मतदाता सूची में हेरफेर” का आरोप लगाया था, वहीं अब कोर्ट की टिप्पणियों के बाद यह बहस और तेज हो सकती है।
बहरहाल, फिलहाल के लिए स्पष्ट है कि बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण की प्रक्रिया जारी रहेगी, लेकिन इसके हर कदम को जवाबदेही और पारदर्शिता के आईने में देखा जाएगा।
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इमरजेंसी सिर्फ इतिहास नहीं चेतावनी है शशि थरूर का तीखा प्रहार संजय गांधी की नीतियों पर
कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने इमरजेंसी को बताया ‘क्रूरता की मिसाल’, बोले – लोकतंत्र को हल्के में लेने की भूल अब नहीं दोहराई जानी चाहिए

इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में लगाए गए आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला अध्याय माना जाता है। लेकिन अब जब इस घटना को 50 साल पूरे होने जा रहे हैं, तब कांग्रेस नेता शशि थरूर ने खुद अपनी पार्टी की उस नीतिगत भूल पर खुलकर सवाल उठाए हैं।
लोकसभा सांसद और लेखक-राजनयिक थरूर, जो अपनी स्वतंत्र और निर्भीक राय के लिए जाने जाते हैं, ने मलयालम अखबार ‘दीपिका’ में प्रकाशित एक लेख में लिखा है – “इमरजेंसी सिर्फ अतीत का अध्याय नहीं, बल्कि एक स्थायी चेतावनी है। अनुशासन और नियंत्रण की आड़ में जबरन थोपे गए फैसले लोकतंत्र को चोट पहुंचाते हैं।”
संजय गांधी, जिनके नेतृत्व में नसबंदी अभियान चलाया गया था, उन पर भी थरूर ने अप्रत्यक्ष हमला किया। उन्होंने लिखा कि “यह अभियान गरीबों के खिलाफ सत्ता का इस्तेमाल था। ग्रामीण भारत में हिंसा, शहरों में जबरन झुग्गी हटाना और आमजन के साथ हुए बर्ताव को किसी भी लोकतांत्रिक समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
थरूर के मुताबिक, लोकतंत्र केवल चुनावों का नाम नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रणाली है, जहां असहमति को कुचला नहीं जाता, बल्कि सुना जाता है। उनका कहना है – “जब आप सत्ता को केंद्रीकृत करते हैं और संविधान की आत्मा की अनदेखी करते हैं, तो आप न केवल लोकतंत्र को खतरे में डालते हैं, बल्कि समाज के विश्वास को भी तोड़ते हैं।”
द वर्डस्मिथ ऑफ कांग्रेस, जैसा कि थरूर को उनके समर्थक कहते हैं, उन्होंने इमरजेंसी को एक ‘बहुमूल्य सबक’ करार दिया और कहा कि – “लोकतंत्र को हमें केवल बचाना ही नहीं, बल्कि हर दिन नया रूप देना चाहिए। इतिहास से सबक लेने का समय अब है, नहीं तो भविष्य में वही त्रासदी फिर से लौट सकती है।”
उनकी इस टिप्पणी ने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है। जहां एक ओर विपक्ष ने थरूर के साहस की तारीफ की है, वहीं कई कांग्रेस नेता अब तक इस विषय पर चुप्पी साधे हुए हैं।
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