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KBC के बच्चे ने दिखाया ‘ओवर कॉन्फिडेंस’ या पेरेंटिंग का असर – जानिए क्या है ‘Six Pocket Syndrome’

KBC के मंच पर एक बच्चे के बर्ताव ने उठाए सवाल – क्या आधुनिक पैरेंटिंग बच्चों को बना रही है जिद्दी और भावनात्मक रूप से कमजोर?

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KBC Kid’s Behaviour Sparks Parenting Debate – What is Six Pocket Syndrome? | Dainik Diary
KBC में एक बच्चे के व्यवहार ने उठाए सवाल — क्या हम बच्चों को जिम्मेदार बना रहे हैं या जिद्दी?

सोशल मीडिया पर हाल ही में कौन बनेगा करोड़पति (KBC) के एक बच्चे का वीडियो वायरल हुआ, जिसने अपने बर्ताव से दर्शकों को चौंका दिया। बच्चा न सिर्फ अमिताभ बच्चन के सामने अत्यधिक आत्मविश्वास से बात करता नजर आया, बल्कि कई बार उसकी प्रतिक्रिया इतनी निर्भीक लगी कि लोगों ने इसे “बद्तमीजी” तक कहा।

इस घटना ने एक बड़ा सवाल खड़ा किया — क्या हमारी नई पीढ़ी के बच्चे ओवरकॉन्फिडेंट हो रहे हैं या यह माता-पिता की अति-दुलार भरी परवरिश का परिणाम है?

दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. राजीव मेहता के अनुसार, “हम बच्चों को इतना लाड़-प्यार देते हैं कि वे वास्तविक दुनिया से जूझने की क्षमता खो देते हैं। इसे ही ‘Six Pocket Syndrome’ कहा जाता है।”

क्या है ‘Six Pocket Syndrome’?

यह शब्द पहली बार चीन में आया था। जब वहां “वन-चाइल्ड पॉलिसी” लागू थी, तो हर बच्चे पर छह वयस्क — दो माता-पिता और चार दादा-दादी — प्यार और संसाधनों की बारिश करते थे। यानी बच्चे के पास छह जेबें (six pockets) थीं जो उसके लिए खर्च करने को तैयार रहती थीं।

भारत में भी यही स्थिति देखने को मिल रही है।

“माता-पिता के पास समय की कमी और पैसा दोनों है। इसलिए वे बच्चे की हर ख्वाहिश पूरी कर देते हैं ताकि उसे रोते हुए न देखना पड़े,” डॉ. मेहता कहते हैं।

अति-प्यार या असली समस्या?

डॉ. मेहता बताते हैं कि कई बार बच्चे जब मोबाइल, गेम्स या किसी महंगे गिफ्ट की मांग करते हैं और उसे नहीं मिलता, तो वे हिस्टीरिकल रिएक्शन (गुस्से के दौरे) दिखाते हैं। यह स्थिति ‘Dissociative Convulsive Disorder’ कहलाती है, जो भावनात्मक असंतुलन का परिणाम है।

“जब हम हर बार बच्चे की मांग पूरी करते हैं, तो हम उसे ‘ना’ का सामना करने से वंचित कर देते हैं,” वे जोड़ते हैं।

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‘राइट्स’ नहीं, ‘रिस्पॉन्सिबिलिटी’ सिखाने की जरूरत

हम एक समय में “ज़िम्मेदारी-आधारित समाज” थे, जहां बच्चों को सीमाएं और जिम्मेदारियां सिखाई जाती थीं। लेकिन आज हम “राइट्स-आधारित समाज” बना रहे हैं — जहां हर चीज़ को ‘मेरा अधिकार’ समझ लिया जाता है।

अक्सर दादा-दादी या दूसरे रिश्तेदार भी इस प्रक्रिया में बच्चे को और ज्यादा लाड़-प्यार देकर “न” की अवधारणा को खत्म कर देते हैं। बच्चा सीख जाता है कि किसी न किसी से उसे “हां” जरूर मिल जाएगी।

परिणाम: जब बच्चे बड़े होते हैं

ऐसे बच्चे किशोरावस्था में पहुंचकर समाज में ढलने में असमर्थ हो जाते हैं। वे सामाजिक सीमाएं नहीं समझते, रिश्तों में असहिष्णु हो जाते हैं और कई बार गुस्से या नशे की लत में पड़ जाते हैं।

“कई मामलों में ऐसे बच्चे बड़े होकर अपने पार्टनर के साथ शारीरिक हिंसा तक करने लगते हैं,” डॉ. मेहता चेतावनी देते हैं।

सही पैरेंटिंग का मॉडल क्या होना चाहिए?

डॉ. मेहता कहते हैं कि सुधार की शुरुआत माता-पिता से होनी चाहिए।

  • इनाम हमेशा किसी कार्य या जिम्मेदारी के पूर्ण होने पर दिया जाए।
  • बच्चे को घर के छोटे-मोटे काम सौंपें — जैसे कपड़े मोड़ना, अपनी किताबें व्यवस्थित करना, प्लेट्स वापस रखना।
  • समूह गतिविधियों में शामिल करें ताकि वह दूसरों के साथ व्यवहार करना सीखे।

“बच्चे को सशक्त बनाना जरूरी है, लेकिन उसे लाड़ में डूबो देना उसके भविष्य के लिए खतरनाक है,” वे कहते हैं।
अधिक अपडेट के लिए http://www.dainikdiary.com

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